Monday, February 8, 2010

राहुलमय मीडिया

राहुल गांधी के दौरे हमेशा सुर्खियों में रहे हैं। उनके हर दौरे में मीडिया की एक बहुत बड़ी जमात उनके आगे पीछे ऐसे डोलती है जैसे राहुल बाबा उनके तारणहार हों। राहुल बाबा ने क्या खाया, क्या पिया, किससे मिले, कहां गए, किस दलित के घर रात बिताई, किसके साथ खाना खाया, किस विश्वविद्यालय में छात्रों से मुखातिब हुए, सब पर मीडिया की पैनी नज़र रही।

मुम्बई में तो मीडिया ने राहुल बाबा के गुणगान की सारी हदें तोड़ दीं। चैनलों ने राहुल बाबा की पल-पल की खबर दी, हर पल की खबर दी और खबर हर कीमत पर दी। राहुल ने एटीएम से पैसे निकाले, लोकल ट्रेन में सफर किया। लोगों से बात की। उनकी परेशानियों के बारे में पूछा। लगभग सभी छोटे-बडे़ चैनलों पर राहुल बाबा के भजन चल रहे थे। इन भजनों को देखकर लगा जैसे राहुल बाबा कोई ऐतिहासिक पुरूष हों बहुत बड़े मिशन पर निकले हों। भारत के एकमात्र ऐसे व्यक्ति हों जिन्हें भारत की सचमुच बहुत चिन्ता हो। उस व्यवस्था में बदलाव लाना चाहते हों जो उनके पूर्वजों की देन है। उनके पीछे मीडिया की इतनी बड़ी जमात देखकर एक पल ऐसा भी लगता है जैसे कांग्रेस ने इन सभी चैनलों के साथ डील कर रखी हो। यह अलग बात है कि हमेशा यह बताने की कोशिश की जाती है कि राहुल ने मीडिया से दूरी बनाकर रखी या मीडिया से बचते रहे। लेकिन वे कभी मीडिया से नहीं बच पाते। देश के अति पिछले इलाकों में दौरों के दौरान भी नहीं बचे जहां मीडिया के दर्शन दुर्लभ होते हैं। राहुल बाबा गए तो मीडिया को भी मजबूरन पीछे-पीछे जाना पड़ा।

राहुल गांधी पिछले साल जब छत्तीसगढ़ दौरे पर थे, एक छात्र ने उनसे एक बहुत वाजिब सवाल पूछा कि भारत की आजादी के इतने बरस बाद भी कृषि मानसून पर क्यों निर्भर है, जबकि देश में आजादी के बाद से कुछेक सालों के आलावा कांग्रेस का ही राज रहा है। राहुल गांधी ने बहुत मासूमियत से इस सवाल को टाल दिया था। राहुल गांधी अक्सर ऐसे चुभने वाले सवालों को ऐसी ही मासूमियत से टाल देते हैं।

राहुल गांधी को सचमुच देश की फिक्र है। गरीब-गुरबों की चिंता है। छत्तीसगढ़ दौरे से पहले साल 2008 में सूखे की मार झेल रहे बुन्देलखण्ड दौरे पर भी गए थे। लोगों से मिले, उनसे बात की। यह साबित करने की कोई कसर नहीं छोड़ी थी कि वे ही उनके सच्चे हितैषी हैं, मायावती सिर्फ उनका वोट बैंक के तौ
र पर इस्तेमाल कर रही है। उन्होंने बुन्देलखण्ड की प्यासी जमीन पर खूब पसीनें की बून्दे गिराईं।

दूसरे दिन शायद बुन्देलखण्ड दौरे की थकान मिटाने के लिए आईपीएल के मजे लूटते नज़र आए। सहसा लगा कि क्या ये वही राहुल गांधी है जो कल तक बुन्देलखण्ड के किसानों और दलितों के घर में उनके हालात पर दुखी और चिन्ता जाहिर कर रहे थे। उनके सच्चे और एकमात्र शुभचिन्तक होने का दावा कर रहे थे। किसानों के मुरझाए झुर्रीदार चेहरों और दो वक्त की रोटी के लिए भगवान से दुआ मांगने वाले लोगों की तस्वीरें इतनी जल्दी उनकी दृष्टि से ओझल हो जाएंगी? क्योंकि अगर आप विदर्भ बनते जा रहे बुन्देलखण्ड के किसानों के घर में घुसकर देखें तो आपको एक अजब से बैचनी होगी। उनसे बात करते वक़्त हो सकता है कि यह व्यवस्था से कोफ्त होने लगे। अगर आपको सचमुच उनकी चिन्ता है तो उनकी हालत देखकर आपकी रातों की नीन्द उड़नी तय है। अगर ऐसा नहीं है तो आप उनके हमदर्द होने का जो दावा करते हैं, वह झूठा है, खोखला है। आपकी बातें सिर्फ कागजी हैं।

पर इससे मीडिया को क्या? जो बिकता है वो दिखता है। अब तो जो बिकता नहीं उसे भी बेचने की तमाम कोशिशें मीडिया कर रहा है। पेड न्यूज का जमाना है। कहीं ऐसा तो नहीं पेड न्यूज के जरिए देशभर में राहुल बाबा की ऐसी छवि और माहौल बनाया जा रहो हो ताकि आने वाले सालों में वे बिना कोई परेशानी आसानी से प्रधानमंत्री की कुर्सी पर चढ़ बैठें?

1 comment:

राजेश अग्रवाल said...

सटीक टिप्पणी, बधाई !