Friday, December 30, 2011

गांव में मोबाइल टावर

जितनी बार गांव गया हूं, हर बार उसे एक जैसा पाया है। गांव को जोड़ने वाली करीब आठ किलोमीटर लंबी वही टूटी सड़क, दो मटकी सिर पर रखे और एक कांख में दबाए कुएं से पानी भरकर जातीं औरतें, कुएं के पास हमेशा एक ही मुद्रा में खड़ा बरगद का पेड़, खंभों पर लटके बिजली की राह तकते तार, चबूतरों पर बैठकर ताश खेलते लोगों का समूह- कुछ नहीं बदला।

बुंदेलखंड के बांदा जिले में बसे मेरे गांव की हमेशा यही तस्वीर जेहन में थी। गांव पहुंचने के लिए डग्गा (कई जगह इसे जुगाड़ भी कहा जाता है) से जाना पड़ता है। डग्गा की सर्विस बड़ी चुस्त-दुरुस्त है। यह हमेशा तय वक्त पर चलता है। इसे पकड़ने से चूके तो पैदल ही यात्रा करनी पड़ती है। लेकिन थोड़े दिनों पहले डग्गा से गांव गया तो वहां पहुंचते ही मेरे जेहन में बसी गांव की तस्वीरें टूटनी शुरू हुईं। पहला झटका गांव के बाहर खेत में खड़े मोबाइल टावर को देखकर लगा। बड़ा ताज्जुब हुआ कि जिस गांव में सरकार की तमाम योजनाओं ने पहुंचने से पहले ही दम तोड़ दिया, जहां की सड़क लंबे अरसे से अपनी बदहाली पर रो रही हैं, जहां लोग मिट्टी के तेल की डिबिया जलाकर घरों में रोशनी करते हैं, वहां सूचना तकनीक ने दस्तक दे दी!

अपने गांव में वह टावर देखकर मैं सोच में पड़ गया कि आखिर इस उजाड़ और सूखे गांव में मोबाइल कंपनियों को क्या मिलेगा। लेकिन कुछ देर बाद ही पता चल गया कि मैं गलत था। मोबाइल कंपनी अपने मकसद में कामयाब हो गई थी। गांव के युवाओं के हाथों में सेलफोन देखकर यकीन हो गया कि बाजार मेरे दरिद्र गांव तक पूरी तैयारी के साथ पहुंचा है। गांव में मोबाइल क्रांति की वजह मोबाइल टावर ही था। पहले इक्का-दुक्का लोगों के पास ही मोबाइल फोन होता था। आसपास टावर न होने पर नेटवर्क नहीं आता था। गांव के बाहर या बगल के पहाड़ पर जाने पर फोन नेटवर्क पकड़ता था और बात हो पाती थी। लेकिन अब स्थिति बदल चुकी है। टावर लगने पर ज्यादातर घरों में मोबाइल ने अपनी पैठ बना ली है। युवाओं के बीच अब चर्चा के विषय भी बदल गए हैं। अब अधिकतर बातें मोबाइल को लेकर ही होती हैं। मसलन, तेरा कौन सी कंपनी का फोन है, कैमरा है क्या, कितनी मेमरी है, कौन-कौन से गाने हैं आदि।

कई घरों में बात करने पर पता चला कि जब से मोबाइल टावर लगा है, युवा अपने गरीब मां-बाप पर मोबाइल के लिए दबाव बनाने लगे हैं। जिद पर अड़कर कई युवा मोबाइल हासिल भी कर चुके हैं। कुछ मां-बाप ने कर्जा लेकर बच्चों को मोबाइल दिलवाया है। हैरानी यह देखकर भी हुई कि मोबाइल टावर के लिए अलग से बिजली की लाइन पहुंची थी। गांव के घरों में भले ही अंधेरा हो लेकिन टावर की बिजली की खुराक में कमी नहीं आने दी गई थी। यह देखकर मैं सोचने लगा कि क्या प्राइवेट कंपनियां सरकारों के लिए उन लोगों से ज्यादा अहम हो गई हैं जिन्होंने उन्हें सत्ता तक पहुंचाया है?