Saturday, July 3, 2010

आकर दिल्ली में










तमाम
दिक्कतों के बाद
गुज़ारा चल रहा था उनका
आकर दिल्ली में.
तीस रूपए रिक्शे का भाडा
चुकाने के बाद
बच जाते थे कुछ पैसे
आ जाते थे थोड़े चावल
थोड़ी सब्जी, थोड़ी दाल
भूखा नहीं सोना पड़ता था
आकर दिल्ली में.
सुना है रहनुमाओं को अब
बुरी लगने लगी हैं
इनकी शक्लें
मेहमान इनको देखकर क्या सोचेंगे
सता रही है यह चिंता.
बन गई हैं योजनायें
बेदखली की
अब कहां ढूंढें ये ठौर ठिकाना
आकर दिल्ली में.

2 comments:

डॉ० डंडा लखनवी said...

शानदार विषय, वस्तु ईमानदार
प्रस्तुति.....बधाई।
सद्भावी--डॉ० डंडा लखनवी

चोरी का सामान said...

भागीरथ जी बेहतरीन
सच में यही हाल है दिल्ली का
रहनुमाओं की जागीर है दिल्ली
अच्छा लगा
पढ़ कर ...
धन्यवाद ......