Saturday, September 14, 2013

अपराध में भागीदारी

उमस भरी गर्मी में एसी बस देखकर राहत महसूस हुई। भागकर बस में चढ़ा और टिकट लेकर सीट पर कब्जा जमा लिया। ऑफिस टाइम पर बड़े दिनों बाद एसी बस मिली थी। 25 रुपए की टिकट लेकर सोचा कि क्यों न थोड़ी देर की नींद ले ली जाए। यह ख्याल आया ही था कि 13-14 साल के लड़कों का जत्था धड़ाधड़ बस में घुस आया। सफेद शर्ट और नीली पेंट में वे सभी स्कूल में पढ़ने वाले लग रहे थे। ड्राइवर के पास की सीटों पर उन्होंने कब्जा जमा लिया। कंडक्टर ने टिकट लेने के लिए आवाज लगाई लेकिन वे उसे अनुसना कर अपनी बातों में मस्त थे। दोबारा आवाज लगाने पर भी असर नहीं हुआ तो झल्लाकर तीसरी बार कंडक्टर ने टिकट लेने को कहा। एक लड़का बोल पड़ा- 'नहीं ले रहे टिकट।' कंडक्टर ने उन्हें उतारने के लिए बस रुकवाई तो दूसरा छात्र बोला- 'आगे उतरना है।'

कंडक्टर भी अड़ गया था- 'टिकट ले लो, नहीं तो नीचे उतरो।' फिर ड्राइवर से मुखातिब हो कंडक्टर ने चेतावनी दे दी 'आगे सबको उतार दियो, न उतरें तो बस साइड में रोक दियो।' थोड़ा आगे चलकर स्टैंड आ गया और वे लड़के कंडक्टर को गरियाते हुए बस से उतर गए। कंडक्टर भी प्रतिक्रिया में उनके मां-बाप को गालियां दे रहा था। बस जैसे ही आगे बढ़ी, एक जोर की आवाज सुनाई दी। एक पल को लगा जैसे किसी कार या दूसरी बस ने पीछे से टक्कर मार दी हो। मुड़कर देखा तो अपनी बस का पिछला शीशा चकनाचूर हो चुका था। बस से उतारने पर उन लड़कों ने यह कारस्तानी की थी। इसके बाद वे एकदम गोली हो गए थे।

कंडक्टर ने साइड में बस रुकवाई और नीचे उतर गया। सवारियों को भी पता चल गया था कि अब बस आगे नहीं जाएगी। उमस भरी गर्मी में एसी बस ने जो अनुभूति मुझे कुछ देर पहले दी थी वह नदारद हो चुकी थी। कंडक्टर 100 नंबर को फोन कर पुलिस के आने का इंतजार कर रहा था और सवारियों दूसरी बस का। पांच मिनट बाद ही दूसरी एसी बस आ गई और लोगों के साथ मेरे भी पैसे और ज्यादा वक्त बर्बाद होने से बच गया। इस घटना ने मेरे स्कूल और कॉलेज के समय की कुछ घटनाओं की याद ताजा कर दी।

ग्यारह साल पहले बारहवीं में पढ़ाई के दौरान क्लास में पढ़ने वाले कुछ शरारती छात्रों ने साकेत में स्कूल के पास से गुजरने वाली ब्लू लाइन बस से शीशे तोड़ने के साथ ही कंडक्टर की भी पिटाई कर दी थी। वजह आज की घटना वाली ही थी- कंडक्टर का टिकट के लिए पैसे मांगना। अंतर बस इतना है कि पहले जो काम बड़ी क्लास में पढ़ने वाले और कॉलेज जाने वाले छात्र करते थे, अब वही सातवीं और आठवीं के बच्चों का शगल बन गया है। ऐसी घटनाएं अपराध की श्रेणी में तब भी थीं, अब भी हैं। फर्क बस इतना है कि इसमें नाबालिगों की भागीदारी विकास की दावेदारी से कहीं ज्यादा बढ़ी है।

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