Wednesday, August 6, 2014

हम लूज़रों की कहानी

लूजर कहीं का! हम सबकी कहानी हो सकती है। उनकी कहानी हो सकती है जो प्यार में हारे हैं, या छलावे में जीते हैैं। जिन लोगों ने खुद को खोकर ही खुद को पाया है, उनकी कहानी तो है ही।
कहानी का नायक पांडे अनिल कुमार सिन्हा देश के उन लाखों युवकों में से एक है जो बिहार या किसी भी प्रदेश के छोटे से कस्बे से दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ने आते हैं। उसके पिता उन लाखों पिताओं में एक हैं जो बेटे को कुछ बनाने का सपना देखकर महानगर में पढ़ने भेजते हैं। उसके दोस्त बिल्कुल हमारे और तुम्हारे दोस्तों जैसे ही हैं जो एक दूसरे से भले ही लड़ते हों लेकिन उनमें प्यार हमेशा बना रहता है।
पांडे अनिल कुमार सिन्हा यानी पैक्स एक लूजर यानी हारे हुए इंसान का प्रतिनिधित्व करता है। हिंदी भाषी बेल्ट या दूसरे क्षे़त्रों के भी उन तमाम लोगों का प्रतिनिधित्व करता है जो छोटे से कस्बे से उठकर दिल्ली जैसे महानगर में अचानक आ धमकते हैं और यहां के अल्ट्रा मॉडर्न समाज को देखकर हैरान हो जाते हैं। इस समाज को देखकर उनमें एक अजीब से बेचैनी पैदा हो जाती है। एक खास किस्म की हीनभावना उनके मन में बैठ जाती है और वे अपने गांव या कस्बों की हेय नजर से देखने लगते हैं।
लूजर कहीं का उन युवाओं की भी कहानी हो सकती है जो मात्र तस्वीर देखकर ही अपने दोस्तों की भाभी चुन लेते हैं। उसकी तस्वीर को तकिए के नीचे छिपाकर रखते हैं और रात बेरात उठकर उसे देखते हैं।
लेखक पंकज दुबे ने हिंदी बेल्ट के हीन भावना से ग्रस्त एक युवक की कहानी को बहुत ही कॉमिक अंदाज में बयां किया है। हिंदी में शुद्धता के पक्षधरों को लेखक की भाषा खटक सकती है। अंग्रेजी के शब्दों का बेरोकटोक इस्तेमाल कहानी के प्रवाह को आगे ही बढ़ाता है। पांडे और उसके दोस्तों के बीच के संवाद गुदगुदाते हैं। कहानी में फिल्मी मसाला कब घुल जाता है, इसका पता ही नहीं चलता। कहानी के मुख्य पात्रों खासकर सुबोध, निशांत और मयंक की भी एक अलग दुनिया है। पैक्स की कहानी के समानांतर उनकी भी कहानी आगे बढ़ती है।
कहानी का एक और दिलचस्प पहलू है दिल्ली विश्वविद्यालय का माहौल और वहां का बारीक जानकारियां। इसे सिर्फ वही बयां कर सकता है जिसने डीयू की जिंदगी को करीब से देखा और दिल से जिया हो। लूजर कहीं का छात्रसंघ चुनाव की राजनीतिक साजिशों का जीता जागता दस्वावेज भी है।

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