काफी दिनों के बाद उस रोज सुबह उठा और घूमने निकल गया। सुबह-सुबह कंधों पर बस्ता टांगे और सज-धज कर बच्चे स्कूल जा रहे थे। अलग-अलग यूनिफॉर्म उन पर खूब फब रही थीं। बस स्टैंड पर बच्चों की बहुत भीड़ थी। उनमें ज्यादातर सरकारी स्कूलों के बच्चे थे जो आमतौर पर पब्लिक बसों या कोई और वाहनों से स्कूल जाया करते हैं। सभी को बसों का इंतजार था। काफी देर बाद कोई बस आती और बिना रुके ही आगे बढ़ जाती। कई बस ड्राइवर तो बच्चों को देखकर स्पीड दोगुनी कर लेते। यह देख कुछ बच्चे गुस्से में आकर ड्राइवर की मां-बहन एक करते और अगली बस का इंतजार करने लगते।
कोई-कोई बस ड्राइवर दरियादिली दिखाते हुए बस रोक देता तो बस ठसाठस भर जाती। अंदर एक इंच जगह न बचने पर बसों के दोनों दरवाजों पर दर्जनों बच्चे लटक जाते और किसी तरह जान जोखिम में डालकर स्कूल पहुंचते। उन्हें लटका देखकर एकबारगी लगता कि अगर उनका हाथ छूट गया तो...। हर बार लड़कियां और छोटे बच्चे सुस्त पड़ जाते और बसों में नहीं चढ़ पाते। बड़े बच्चों के जाने के बाद ही उनका नंबर आ पाता। यह सब देखकर मुझे अपने स्कूल के दिन याद आ गए। करीब 15 साल पहले मुझे भी इसी तरह बसों में लटककर स्कूल जाना पड़ता था। और अगर स्कूल पहुंचने में देर हो जाती तो स्कूल के पीटीआई (अनुशासन सुनिश्चित कराने वाले शिक्षक) मुर्गा बना देते, फिर स्कूल की सफाई कराते। कभी-कभी तो दो-चार डंडों का प्रसाद भी देते। तब से अब तक एक लंबा अरसा गुजर गया है।
दिल्ली के एक कोने से दूसरे कोने तक, यहां तक कि दूसरे शहरों तक मेट्रो फर्राटे भर रही है। कॉमनवेल्थ गेम्स का आयोजन कर दिल्ली अपने आपको धन्य समझ रही है। रफ्तार और रोमांच का खेल फॉर्म्युला-1 दिल्ली के पड़ोस में आयोजित हो चुका है। फ्लाईओवरों और चौड़ी सड़कों के बीच भागती दिल्ली ने इस दौरान विकास की कई इबारतें लिखी हैं। इन सबके बीच अगर नहीं बदला तो घर से स्कूल और स्कूल से घर आने का जोखिम भरा सफर। घर से महज तीन या चार किलोमीटर दूर स्कूल जाने की व्यवस्था दिल्ली अपने बच्चों के लिए नहीं कर पाई है। मुझे याद है कि एक बार स्कूल की छुट्टी होने पर बच्चों की भारी भीड़ थी। कोई ड्राइवर बस नहीं रोक रहा था। बस में बच्चे न चढ़ जाएं यह सोचकर एक ब्लूलाइन बस के ड्राइवर ने स्पीड बढ़ा दी। इस दौरान एक बच्चा उसके नीचे आ गया और अपने दोनों पैर गंवा बैठा। इस तरह की खबरें अब भी आती रहती हैं। उस रोज सुबह-सुबह मैं सोचने पर मजबूर हो गया कि दिल्ली की प्राथमिकताएं कितनी अजीब हैं। बच्चे बसों में जिंदगी और मौत के बीच झूलते हुए भले ही स्कूल जाएं पर दिल्ली वालों को तो मॉल्स चाहिए। स्कूलों में हालात बेहतर हों, इससे ज्यादा जरूरी है मेट्रो घर के पास से गुजरे। मैं सोचने लगा कि अगर बच्चे सचमुच देश का भविष्य हैं, तो यह भविष्य कब तक बसों में लटका रहेगा?
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