Sunday, September 2, 2012

अचानक

अच्छा खासा काम में
लगा आदमी
आ सकता है
सड़क पर
अचानक
कभी भी कह सकते हैं
बॉस-
देख लो अपना ठिकाना
अब तुम्हारी नही जरुरत

अचानक रसोई में
कमी हो सकती है
आटा दाल चावल चीनी की
बंद हो सकता है अचानक
बच्चे को आनेवाला दूध
और उसका प्राइवेट स्कूल में
पढ़ना
मकान मालिक
करवा सकता है
अचानक
कमरा खाली

अभी अभी
थोड़ा ढंग से जीने की
सर उठाती हसरतें
गिर सकती हैं
अचानक
औंधे मुंह..

आदत

अब नहीं वो गुस्सा करते
भाड़ा बढ़ने पर बस का
आटा-दाल-चीनी-सब्जी
महंगी होने पर
नहीं शिकन आती माथे पर
अब वो आदत डाल रहे हैं
पैदल चलने की
हवा खाकर जिंदा
रहने की..

लोकेशन

अभी कल तलक
कहते थे-
नहीं होने देंगे अन्याय
लडेंगे अत्याचारी से
झोपड़ी और गगन चूमती
एसीदार इमारतों के बीच
कर देंगे खत्म फासला
आज वह भी,
उन्हीं लोगों की जमात में
हो गए हैं शामिल
सबसे आगे चल रहे हैं उठाकर
उनका झंड़ा
उसी एसीदार इमारत पर
ले लिया है फ्लैट
बालकनी में खडे़ होकर
देखता है झोपड़ी की तरफ
जहां से उठकर आया है
अब खटक रही है उसे
अपने बगल में
उस झोपड़ी की लोकेशन।

Wednesday, July 11, 2012

गांव में मट्ठा की जगह पेप्सी

शहरों के प्रभाव से गांवों के खानपान में धीरे - धीरे से कृत्रिमता घुलती जा रही है। सतही तौर पर ऐसे परिवर्तन भले ही मामूली नजर आएं लेकिन ग्रामीणों की अर्थव्यवस्था पर इनका गहरा असर पड़ रहा है। बाजार के प्रभाव और खुद को मॉडर्न दिखाने के लिए ग्रामीणों के खानपान में बहुत सी ऐसी चीजें शामिल होती जा रही हैं जिनसे एक दशक पहले तक वे लगभग अनजान थे। इसी के साथ कुछ परंपरागत चीजें पीछे छूटती जा रही हैं। माठा यानि मट्ठा या छाछ का धीरे - धीरे गायब होना इसी परिवर्तन का प्रतीक है। इसे दुर्भाग्य कहें या बाजार का मायाजाल कि गांवों में माठा की जगह पेप्सी , कोका कोला आदि कोल्ड ड्रिंक्स ने ले ली है। गरीब किसानों के बच्चे अब माठा की जगह पेप्सी की जिद करते हैं। कई किसान अनाज बेचकर कोल्ड ड्रिंक्स मंगा रहे हैं। बहुत पहले की बात नहीं है जब गांव के घर - घर मंे माठा भांया जाता था। अक्सर माठा भाने की आवाज से लोगों की नींद टूटती थी। गरीब घरों में सब्जी - दाल न बनने पर माठा में रोटी मीसकर खा ली जाती थी। दूध से यह बिना खर्च आसानी से उपलब्ध था। मेहमानों की आवभगत और शादी समारोहों में माठा से सन्नाटा यानी रायता बनाकर परोसा जाता था। सन्नाटा न हो तो भोज फीका लगता था। ऐसे मौकों पर माठा कम पड़ने पर आसपास के कई घरों से मंगा लिया जाता था। अब शादी समारोह में माठा से बनने वाले सन्नाटे की बजाय कोल्ड ड्रिंक की मांग उठ रही है। बांदा जिले में स्थित मेरे गांव में करीब दस साल पहले शादी या किसी समारोह पर लोगों को कमल के पत्ते पर खाना परोसा जाता था। गांव के तालाब से कमल के पत्ते मुफ्त मेें मिल जाते थे। खाना परोसने से पहले पत्तों को धोया जाता था। जब पानी की बूंदे कमल के पत्तों पर पड़ती थीं तो वे मोतियों जैसी इधर - उधर लुढ़कने लगतीं थीं। अब कमल के पत्तों की जगह फैंसी थालियों ने ले ली है। मेहमानों को पांत मंे बिठाकर प्यार से खाना खिलाने की परंपरा भी भूली बिसरी बात होती जा रही है। करीब 20 साल पहले जब मेरी बहन की शादी हुई थी तब बरात 3 दिन तक ठहरी थी। उस वक्त शादी में 3 दिन लगते थे। आज यह बात किसी अचंभे से कम नहीं लगती। करीब 5-7 साल पहले बरातें ट्रैक्टर - ट्रॉलियों में खूब जाती थीं। अब ट्रैक्टर में बरातें दिखनी लगभग बंद होती जा रही हैं। खुद को मॉडर्न दिखाने की चाह में और दूसरे लोगों के दबाव में लोग कर्ज लेकर बस , जीप , बोलेरो और कारों में बरातें ले जा रहे हैं। बदलाव की मार कैथा नामक फल पर भी पड़ी है। उसकी चटनी का स्वाद आज भी मुझे याद है। हर बार गांव जाने पर सोचता हूं कि कहीं से कैथा की चटनी मिल जाए लेकिन पिछले कुछ सालों से लगातार निराशा ही हाथ लग रही है।

Saturday, January 14, 2012

बेबसी, बदहाली और बुंदेलखंड

अचानक ताऊजी की मौत पर पिछले दिनों गांव जाना हुआ, तो बुंदेलखंड की बदहाली देखकर दिल पसीज गया। गांव-गांव में पसरा मातमी सन्नाटा देखकर सिर से पांव तक सिहरन सी दौड़ गई।

खेती से दो जून की रोटी मयस्सर न होने के कारण वहां से लोगों का बेतहाशा पलायन जारी है। खाली गांव और तमाम रेलवे स्टेशनों पर लोगों के बुझे चेहरे उनकी तकलीफ बयां करते हैं। ये हाल तब है जब यह खेती का सीजन है।

बाकी दिनों के हालात और भी भयावह होते हैं। दिल्ली के निजामुद्दीन रेलवे स्टेशन से महाकौशल और यूपी संपर्क क्रांति एक्सप्रेस बुंदेलखंड जाती हैं। इन दोनों ट्रेनों में, खासकर चालू डिब्बों में पैर रखने तक की जगह मुश्किल से मिलती है। इस बार रिजर्वेशन न मिलने के कारण मैंने सपरिवार चालू डिब्बे में ही जाने का फैसला किया। सवा चार बजे चलने वाली महाकौशल एक्सप्रेस ठसाठस भरी थी।

बड़ी मशक्कत के बाद हम ट्रेन में घुस गए। गाड़ी के अंदर मची बदहवासी और उमस भरी गर्मी ने पसीने से तर कर दिया। गाड़ी के दो घंटे लेट होने पर हमारी हिम्मत जवाब दे गई और हम उतर गए। सोचा कि सवा आठ बजे वाली यूपी संपर्क क्रांति से जाएंगे लेकिन उसमें भी राहत नहीं थी।

इमर्जेंसी खिड़की से घुसकर सीट पर कब्जा करना पड़ा। चार की सीट पर सात लोग किसी तरह एडजस्ट होकर बैठ गए। ऊपर की सीटों पर भी 6-6 लोग उकडूं बैठे थे। आते वक्त मैं इस परेशानी से बचना चाहता था, इसलिए बांदा पहुंचते ही तत्काल कोटे से रिजर्वेशन करा लिया। स्टेशन पर मैं समय रहते पहुंच गया।

वहां लोगों का हुजूम देखकर ऐसा लगा जैसे पूरा बुंदेलखंड ही पलायन कर रहा हो। कोई अकेला तो कोई अपने परिवार के साथ दो वक्त की रोटी की तलाश में शहर जा रहा था। गाड़ी आई और देखते की देखते भूसे की तरह भर गई। पूरे स्टेशन पर अफरातफरी का माहौल था। अधनंगे बच्चे खाली पांव अपने मां-बाप के साथ इस डिब्बे से उस डिब्बे में भटक रहे थे।

औरतें गोदी में बच्चे लिए और सिर पर गठरी बांधे पागलों की तरह यहां-वहां भागती दिखीं। चालू डिब्बे में जगह न मिलने पर लोग आरक्षित डिब्बों में घुस गए। गेट के पास थोड़ी सी जगह में दर्जनों लोग किसी तरह बैठ गए। कुछ अंदर आकर किसी के पैर के नीचे तो कोई किसी की सीट के नीचे घुसकर लेट गया।

वक्त के मारे इन लोगों को टीटी ने भी नहीं बख्शा। जिससे जितना बना उसने ऐंठ लिए। थोड़ी देर के लिए मैं टीटी की काली कमाई का हिसाब लगाने लगा। फिर अचानक लोगों के मुरझाए चेहरों पर नजर टिक गई। वे काफी देर तक मेरे जेहन में घूमते रहे। ख्याल आया कि यही लोग शहर की किसी झुग्गी झोपड़ी में अपने ठिकाने की तलाश करेंगे।

जिनको यह भी नसीब नहीं होगा वे किसी फ्लाईओवर के नीचे या फुटपाथ पर रात गुजारेंगे। रात की ड्यूटी में जब कैब से घर लौट रहा होता हूं, ऐसे लोग अक्सर मुझे बड़ी तादाद में नजर आ जाते हैं।

Monday, January 9, 2012

बसों में लटका भविष्य

काफी दिनों के बाद उस रोज सुबह उठा और घूमने निकल गया। सुबह-सुबह कंधों पर बस्ता टांगे और सज-धज कर बच्चे स्कूल जा रहे थे। अलग-अलग यूनिफॉर्म उन पर खूब फब रही थीं। बस स्टैंड पर बच्चों की बहुत भीड़ थी। उनमें ज्यादातर सरकारी स्कूलों के बच्चे थे जो आमतौर पर पब्लिक बसों या कोई और वाहनों से स्कूल जाया करते हैं। सभी को बसों का इंतजार था। काफी देर बाद कोई बस आती और बिना रुके ही आगे बढ़ जाती। कई बस ड्राइवर तो बच्चों को देखकर स्पीड दोगुनी कर लेते। यह देख कुछ बच्चे गुस्से में आकर ड्राइवर की मां-बहन एक करते और अगली बस का इंतजार करने लगते।

कोई-कोई बस ड्राइवर दरियादिली दिखाते हुए बस रोक देता तो बस ठसाठस भर जाती। अंदर एक इंच जगह न बचने पर बसों के दोनों दरवाजों पर दर्जनों बच्चे लटक जाते और किसी तरह जान जोखिम में डालकर स्कूल पहुंचते। उन्हें लटका देखकर एकबारगी लगता कि अगर उनका हाथ छूट गया तो...। हर बार लड़कियां और छोटे बच्चे सुस्त पड़ जाते और बसों में नहीं चढ़ पाते। बड़े बच्चों के जाने के बाद ही उनका नंबर आ पाता। यह सब देखकर मुझे अपने स्कूल के दिन याद आ गए। करीब 15 साल पहले मुझे भी इसी तरह बसों में लटककर स्कूल जाना पड़ता था। और अगर स्कूल पहुंचने में देर हो जाती तो स्कूल के पीटीआई (अनुशासन सुनिश्चित कराने वाले शिक्षक) मुर्गा बना देते, फिर स्कूल की सफाई कराते। कभी-कभी तो दो-चार डंडों का प्रसाद भी देते। तब से अब तक एक लंबा अरसा गुजर गया है।

दिल्ली के एक कोने से दूसरे कोने तक, यहां तक कि दूसरे शहरों तक मेट्रो फर्राटे भर रही है। कॉमनवेल्थ गेम्स का आयोजन कर दिल्ली अपने आपको धन्य समझ रही है। रफ्तार और रोमांच का खेल फॉर्म्युला-1 दिल्ली के पड़ोस में आयोजित हो चुका है। फ्लाईओवरों और चौड़ी सड़कों के बीच भागती दिल्ली ने इस दौरान विकास की कई इबारतें लिखी हैं। इन सबके बीच अगर नहीं बदला तो घर से स्कूल और स्कूल से घर आने का जोखिम भरा सफर। घर से महज तीन या चार किलोमीटर दूर स्कूल जाने की व्यवस्था दिल्ली अपने बच्चों के लिए नहीं कर पाई है। मुझे याद है कि एक बार स्कूल की छुट्टी होने पर बच्चों की भारी भीड़ थी। कोई ड्राइवर बस नहीं रोक रहा था। बस में बच्चे न चढ़ जाएं यह सोचकर एक ब्लूलाइन बस के ड्राइवर ने स्पीड बढ़ा दी। इस दौरान एक बच्चा उसके नीचे आ गया और अपने दोनों पैर गंवा बैठा। इस तरह की खबरें अब भी आती रहती हैं। उस रोज सुबह-सुबह मैं सोचने पर मजबूर हो गया कि दिल्ली की प्राथमिकताएं कितनी अजीब हैं। बच्चे बसों में जिंदगी और मौत के बीच झूलते हुए भले ही स्कूल जाएं पर दिल्ली वालों को तो मॉल्स चाहिए। स्कूलों में हालात बेहतर हों, इससे ज्यादा जरूरी है मेट्रो घर के पास से गुजरे। मैं सोचने लगा कि अगर बच्चे सचमुच देश का भविष्य हैं, तो यह भविष्य कब तक बसों में लटका रहेगा?