अचानक ताऊजी की मौत पर पिछले दिनों गांव जाना हुआ, तो बुंदेलखंड की बदहाली देखकर दिल पसीज गया। गांव-गांव में पसरा मातमी सन्नाटा देखकर सिर से पांव तक सिहरन सी दौड़ गई।
खेती से दो जून की रोटी मयस्सर न होने के कारण वहां से लोगों का बेतहाशा पलायन जारी है। खाली गांव और तमाम रेलवे स्टेशनों पर लोगों के बुझे चेहरे उनकी तकलीफ बयां करते हैं। ये हाल तब है जब यह खेती का सीजन है।
बाकी दिनों के हालात और भी भयावह होते हैं। दिल्ली के निजामुद्दीन रेलवे स्टेशन से महाकौशल और यूपी संपर्क क्रांति एक्सप्रेस बुंदेलखंड जाती हैं। इन दोनों ट्रेनों में, खासकर चालू डिब्बों में पैर रखने तक की जगह मुश्किल से मिलती है। इस बार रिजर्वेशन न मिलने के कारण मैंने सपरिवार चालू डिब्बे में ही जाने का फैसला किया। सवा चार बजे चलने वाली महाकौशल एक्सप्रेस ठसाठस भरी थी।
बड़ी मशक्कत के बाद हम ट्रेन में घुस गए। गाड़ी के अंदर मची बदहवासी और उमस भरी गर्मी ने पसीने से तर कर दिया। गाड़ी के दो घंटे लेट होने पर हमारी हिम्मत जवाब दे गई और हम उतर गए। सोचा कि सवा आठ बजे वाली यूपी संपर्क क्रांति से जाएंगे लेकिन उसमें भी राहत नहीं थी।
इमर्जेंसी खिड़की से घुसकर सीट पर कब्जा करना पड़ा। चार की सीट पर सात लोग किसी तरह एडजस्ट होकर बैठ गए। ऊपर की सीटों पर भी 6-6 लोग उकडूं बैठे थे। आते वक्त मैं इस परेशानी से बचना चाहता था, इसलिए बांदा पहुंचते ही तत्काल कोटे से रिजर्वेशन करा लिया। स्टेशन पर मैं समय रहते पहुंच गया।
वहां लोगों का हुजूम देखकर ऐसा लगा जैसे पूरा बुंदेलखंड ही पलायन कर रहा हो। कोई अकेला तो कोई अपने परिवार के साथ दो वक्त की रोटी की तलाश में शहर जा रहा था। गाड़ी आई और देखते की देखते भूसे की तरह भर गई। पूरे स्टेशन पर अफरातफरी का माहौल था। अधनंगे बच्चे खाली पांव अपने मां-बाप के साथ इस डिब्बे से उस डिब्बे में भटक रहे थे।
औरतें गोदी में बच्चे लिए और सिर पर गठरी बांधे पागलों की तरह यहां-वहां भागती दिखीं। चालू डिब्बे में जगह न मिलने पर लोग आरक्षित डिब्बों में घुस गए। गेट के पास थोड़ी सी जगह में दर्जनों लोग किसी तरह बैठ गए। कुछ अंदर आकर किसी के पैर के नीचे तो कोई किसी की सीट के नीचे घुसकर लेट गया।
वक्त के मारे इन लोगों को टीटी ने भी नहीं बख्शा। जिससे जितना बना उसने ऐंठ लिए। थोड़ी देर के लिए मैं टीटी की काली कमाई का हिसाब लगाने लगा। फिर अचानक लोगों के मुरझाए चेहरों पर नजर टिक गई। वे काफी देर तक मेरे जेहन में घूमते रहे। ख्याल आया कि यही लोग शहर की किसी झुग्गी झोपड़ी में अपने ठिकाने की तलाश करेंगे।
जिनको यह भी नसीब नहीं होगा वे किसी फ्लाईओवर के नीचे या फुटपाथ पर रात गुजारेंगे। रात की ड्यूटी में जब कैब से घर लौट रहा होता हूं, ऐसे लोग अक्सर मुझे बड़ी तादाद में नजर आ जाते हैं।
खेती से दो जून की रोटी मयस्सर न होने के कारण वहां से लोगों का बेतहाशा पलायन जारी है। खाली गांव और तमाम रेलवे स्टेशनों पर लोगों के बुझे चेहरे उनकी तकलीफ बयां करते हैं। ये हाल तब है जब यह खेती का सीजन है।
बाकी दिनों के हालात और भी भयावह होते हैं। दिल्ली के निजामुद्दीन रेलवे स्टेशन से महाकौशल और यूपी संपर्क क्रांति एक्सप्रेस बुंदेलखंड जाती हैं। इन दोनों ट्रेनों में, खासकर चालू डिब्बों में पैर रखने तक की जगह मुश्किल से मिलती है। इस बार रिजर्वेशन न मिलने के कारण मैंने सपरिवार चालू डिब्बे में ही जाने का फैसला किया। सवा चार बजे चलने वाली महाकौशल एक्सप्रेस ठसाठस भरी थी।
बड़ी मशक्कत के बाद हम ट्रेन में घुस गए। गाड़ी के अंदर मची बदहवासी और उमस भरी गर्मी ने पसीने से तर कर दिया। गाड़ी के दो घंटे लेट होने पर हमारी हिम्मत जवाब दे गई और हम उतर गए। सोचा कि सवा आठ बजे वाली यूपी संपर्क क्रांति से जाएंगे लेकिन उसमें भी राहत नहीं थी।
इमर्जेंसी खिड़की से घुसकर सीट पर कब्जा करना पड़ा। चार की सीट पर सात लोग किसी तरह एडजस्ट होकर बैठ गए। ऊपर की सीटों पर भी 6-6 लोग उकडूं बैठे थे। आते वक्त मैं इस परेशानी से बचना चाहता था, इसलिए बांदा पहुंचते ही तत्काल कोटे से रिजर्वेशन करा लिया। स्टेशन पर मैं समय रहते पहुंच गया।
वहां लोगों का हुजूम देखकर ऐसा लगा जैसे पूरा बुंदेलखंड ही पलायन कर रहा हो। कोई अकेला तो कोई अपने परिवार के साथ दो वक्त की रोटी की तलाश में शहर जा रहा था। गाड़ी आई और देखते की देखते भूसे की तरह भर गई। पूरे स्टेशन पर अफरातफरी का माहौल था। अधनंगे बच्चे खाली पांव अपने मां-बाप के साथ इस डिब्बे से उस डिब्बे में भटक रहे थे।
औरतें गोदी में बच्चे लिए और सिर पर गठरी बांधे पागलों की तरह यहां-वहां भागती दिखीं। चालू डिब्बे में जगह न मिलने पर लोग आरक्षित डिब्बों में घुस गए। गेट के पास थोड़ी सी जगह में दर्जनों लोग किसी तरह बैठ गए। कुछ अंदर आकर किसी के पैर के नीचे तो कोई किसी की सीट के नीचे घुसकर लेट गया।
वक्त के मारे इन लोगों को टीटी ने भी नहीं बख्शा। जिससे जितना बना उसने ऐंठ लिए। थोड़ी देर के लिए मैं टीटी की काली कमाई का हिसाब लगाने लगा। फिर अचानक लोगों के मुरझाए चेहरों पर नजर टिक गई। वे काफी देर तक मेरे जेहन में घूमते रहे। ख्याल आया कि यही लोग शहर की किसी झुग्गी झोपड़ी में अपने ठिकाने की तलाश करेंगे।
जिनको यह भी नसीब नहीं होगा वे किसी फ्लाईओवर के नीचे या फुटपाथ पर रात गुजारेंगे। रात की ड्यूटी में जब कैब से घर लौट रहा होता हूं, ऐसे लोग अक्सर मुझे बड़ी तादाद में नजर आ जाते हैं।
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