शहरों के प्रभाव से गांवों के खानपान में धीरे - धीरे से कृत्रिमता घुलती जा रही है। सतही तौर पर ऐसे परिवर्तन भले ही मामूली नजर आएं लेकिन ग्रामीणों की अर्थव्यवस्था पर इनका गहरा असर पड़ रहा है। बाजार के प्रभाव और खुद को मॉडर्न दिखाने के लिए ग्रामीणों के खानपान में बहुत सी ऐसी चीजें शामिल होती जा रही हैं जिनसे एक दशक पहले तक वे लगभग अनजान थे। इसी के साथ कुछ परंपरागत चीजें पीछे छूटती जा रही हैं। माठा यानि मट्ठा या छाछ का धीरे - धीरे गायब होना इसी परिवर्तन का प्रतीक है। इसे दुर्भाग्य कहें या बाजार का मायाजाल कि गांवों में माठा की जगह पेप्सी , कोका कोला आदि कोल्ड ड्रिंक्स ने ले ली है। गरीब किसानों के बच्चे अब माठा की जगह पेप्सी की जिद करते हैं। कई किसान अनाज बेचकर कोल्ड ड्रिंक्स मंगा रहे हैं। बहुत पहले की बात नहीं है जब गांव के घर - घर मंे माठा भांया जाता था। अक्सर माठा भाने की आवाज से लोगों की नींद टूटती थी। गरीब घरों में सब्जी - दाल न बनने पर माठा में रोटी मीसकर खा ली जाती थी। दूध से यह बिना खर्च आसानी से उपलब्ध था। मेहमानों की आवभगत और शादी समारोहों में माठा से सन्नाटा यानी रायता बनाकर परोसा जाता था। सन्नाटा न हो तो भोज फीका लगता था। ऐसे मौकों पर माठा कम पड़ने पर आसपास के कई घरों से मंगा लिया जाता था। अब शादी समारोह में माठा से बनने वाले सन्नाटे की बजाय कोल्ड ड्रिंक की मांग उठ रही है। बांदा जिले में स्थित मेरे गांव में करीब दस साल पहले शादी या किसी समारोह पर लोगों को कमल के पत्ते पर खाना परोसा जाता था। गांव के तालाब से कमल के पत्ते मुफ्त मेें मिल जाते थे। खाना परोसने से पहले पत्तों को धोया जाता था। जब पानी की बूंदे कमल के पत्तों पर पड़ती थीं तो वे मोतियों जैसी इधर - उधर लुढ़कने लगतीं थीं। अब कमल के पत्तों की जगह फैंसी थालियों ने ले ली है। मेहमानों को पांत मंे बिठाकर प्यार से खाना खिलाने की परंपरा भी भूली बिसरी बात होती जा रही है। करीब 20 साल पहले जब मेरी बहन की शादी हुई थी तब बरात 3 दिन तक ठहरी थी। उस वक्त शादी में 3 दिन लगते थे। आज यह बात किसी अचंभे से कम नहीं लगती। करीब 5-7 साल पहले बरातें ट्रैक्टर - ट्रॉलियों में खूब जाती थीं। अब ट्रैक्टर में बरातें दिखनी लगभग बंद होती जा रही हैं। खुद को मॉडर्न दिखाने की चाह में और दूसरे लोगों के दबाव में लोग कर्ज लेकर बस , जीप , बोलेरो और कारों में बरातें ले जा रहे हैं। बदलाव की मार कैथा नामक फल पर भी पड़ी है। उसकी चटनी का स्वाद आज भी मुझे याद है। हर बार गांव जाने पर सोचता हूं कि कहीं से कैथा की चटनी मिल जाए लेकिन पिछले कुछ सालों से लगातार निराशा ही हाथ लग रही है।
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